"टकसाल": अवतरणों में अंतर
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'''टकसाल''' (Mint) उस [[कारखाना|कारखाने]] को कहते हैं जहाँ देश की सरकार द्वारा, या उसके दिए अधिकार से, मुद्राओं का निर्माण होता है। [[भारत]] में टकसालें [[कलकत्ता]], [[मुंबई]], [[हैदराबाद]] और [[
== इतिहास ==
[[मुद्रा|मुद्राओं]] का सर्वप्रथम निर्माण संभवत: ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी में लघु एशिया के लिडिया प्रदेश में हुआ। लगभग इसी काल में इनका चलन चीन में आरंभ हुआ
अति प्राचीन काल से मुद्राएँ [[धातु]] की बनती आई हैं। इस कार्य के लिए इलेक्ट्रम (एक धातु जिसमें सोना और चाँदी प्राकृतिक रूप से मिले रहते हैं), सोना, चाँदी ताँबा ओर काँसे (ब्रांज / bronze) का प्रयोग होता आया है। इनके सिवाय [[सीसा]], [[लोहा]], [[एल्यूमिनियम]] तथा [[निकल]] का भी [[हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल|आधुनिक काल]] में प्रयोग हुआ है।
पहले शुद्ध [[सोना|सोने]] या [[चाँदी]] की मुद्रा बनाने को महत्व दिया जाता था, क्योंकि व्यापार में अन्य देशों के लोग ऐसी मुद्राओं को सहर्ष स्वीकार कर लेते थे, किंतु यह देखा गया कि सोना या चाँदी में [[ताँबा|ताँबे]] का योग देने से न केवल धातु का मूल्य कम पड़ता है वरन् उसमें कठोरता आ जाने के कारण मुद्राएँ शीघ्र घिसती नहीं ओर चलन में अधिक दिन रह पाती हैं। पर क्षय होना [[जंग]] या मुर्चा लगने के कारण भी हो सकता है और ताँबे की अधिक मात्रा की उपस्थिति यह दोष उत्पन्न कर देती है। अत: यह आवश्यक है कि ताँबे की मिलावट इतनी ही की जाए कि संक्षरण न होने पाए।
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[[संयुक्त राज्य अमरीका]], में सन् 1934 से दस भाग में से नौ अंश शुद्ध तथा भार में 15 5/21 ग्रेन सोने के [[डॉलर]] का प्रचलन आरंभ हुआ। [[द्वितीय विश्वयुद्ध]] के मध्य, सन् 1942 से पाँच सेंट की मुद्राएँ 25 प्रतिशत चाँदी, 56 प्रतिशत ताँबा तथा 9 प्रतिशत मैंगनीज की बनने लगीं, किंतु सन् 1945 से इस मिश्रधातु के स्थान पर 75 प्रतिशत ताँबा 25 प्रतिशत निकल की [[मिश्रधातु]] का प्रयोग आरंभ किया गया। 1946 ई0 से पूर्व इस देश के चाँदी के सिक्कों में 90 प्रतिशत चाँदी और 10 प्रतिशत ताँबा रहता था।
छोटी मुद्राओं के लिए [[फ्रांस]] ने 95 प्रतिशत ताँबा, 4 प्रतिशत टिन और 1 प्रतिशत [[जस्ता|जस्ते]] का प्रयोग आरंभ किया और इसकी देखा-देखी प्राय: अन्य सब देश भी यही करने लगे। सन् 1861 में चाँदी के स्थान पर [[बेल्जियम]] में एक ताम्रनिकल (क्यूप्रो निकेल) धातु का, जिसमें 75 प्रतिशत ताँबा और 25 प्रतिशत निकल रहता है, प्रयोग आरंभ हुआ। 1947 से मुद्राओं में चाँदी के स्थान पर इसी धातु का प्रयोग इंग्लैंड में आरंभ हुआ और शीघ्र ही अन्य देशों में भी होने लगा। निकल-पीतल के सिक्के भी, जिसमें 79 प्रति शत ताँबा, 20 प्रति शत जस्ता तथा 1 प्रति शत निकल रहता है, अनेक देशों में बनते हैं। संयुक्त राज्य अमरीका, के एक सेंट की मुद्राएँ काँसे के स्थान पर फरवरी 1943 से जस्ते की तह चढ़े हुए [[इस्पात]] की बनाई जाने लगीं, किंतु दस महीने बाद इनका बनाना बंद कर दिया गया।
== मुद्राओं का निर्माण ==
[[चित्र:1831 coining press (M.A.N. 1873-22-19) 01.jpg|right|thumb|300px|फ्रांस में सन् १८३१ में बनी सिक्का बनाने की दाबक मशीन (प्रेस)]]
प्राचीन काल में मुद्राएँ उत्कीर्णित [[ठप्पा|ठप्पों]] के बीच रखकर और [[हथौड़ा|हथौड़े]] की चोट देकर बनाई जाती थीं। भारत के देशी राज्यों में यह रीति 19वीं शती तक प्रचलित थी। कहीं-कहीं सिक्के ढाले भी जाते थे। आधुनिक टकसालों में निर्माणकार्य मुख्यत: मशीनों द्वारा संपादित होता है। यह आठ पदों में पूरा किया जात है-
(1) '''मुद्रानिर्माण के लिए धातु का शोधन''' - इस कार्य के लिये
(2) '''शुद्ध धातुओं के मिश्रण को गलाकर सिलों में ढालना''',
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अंत में प्रत्येक मुद्रा को देखकर तथा तौलकर उसकी परीक्षा की जाती है। देखने वाले के सम्मुख ये मुद्राएँ चलपट्टों पर रखी इस प्रकार आती हैं कि पारी पारी से उनका चित और पट्ट भाग ऊपर आ जाता है। कम मूल्य की मुद्राओं को छोड़कर, अन्य की तौल भी जाँची जाती है। यह कार्य स्वयंचालित तराजुओं से लिया जाता है। पूर्वोक्त परीक्षाओं में सच्ची उतरने पर ही मुद्राएँ टकसाल से बाहर चलन में आती हैं।
== सिक्कों का आमापन (Assaying of Coins) ==
वह विधि है जिसके द्वारा यह जाँच की जाती है कि सिक्कों की मिश्रधातुओं में भिन्न भिन्न धातुओं का अनुपात निर्धारित सीमा के अनुसार है या नहीं। दो या अधिक धातुओं की मिश्रधातु से साधारणतया सिक्कों का निर्माण होता है। मिश्रधातु की अवयव धातुओं का अनुपात निश्चित रूप से निर्धारित रहता है। मिश्रधातु की अवयव धातुओं का अनुपात निश्चित रूप से निर्धारित रहता है। सिक्का बनाने के पूर्व, मिश्रधातु की अवस्था में ही, आमापन अधिक महत्वपूर्ण होता है। सिक्का बन जाने के बाद आमापन बतौर जाँच के हो सकता है। सिक्के में यदि एक ही धातु हो तो धातु और सिक्का दोनों का आमापन समान रूप से आवश्यक है, जिससे धातु में ऐसे हानिकारक अपद्रव्य न प्रविष्ट हो जाएँ जिनसे सिक्का निर्माण की अनेक अवस्थाओं में धातु की कार्यकारिता और गुणों पर गंभीर कुप्रभाव पड़े, या प्रचलित हो जाने पर सिक्के के गुणों में अंतर हो जाए।
काँसा, ताँबा-निकल, निकल-पितल और रजत की मिश्रधातु से भारत में सिक्के बनते रहे हैं। शुद्ध निकल का प्रयोग 1946 ई. में, जब सिक्कों में चाँदी का प्रयोग धीरे धीरे समाप्त किया जाने लगा, प्रारंभ हुआ। काँसे के सिक्के में ताँबा, टिन और जस्ते का, ताँबा, निकल सिक्के में ताँबा और निकल का, निकल-पीतल सिक्के में ताँबा, निकल और जस्ते का, तथा रजतमिश्र धातु के सिक्के में साधारणतया केवल चाँदी का आमापन किया जाता है। शुद्ध निकल के सिक्कों में निकल और हानिकारक अपद्रव्य के रूप में कार्वन, गंधक आदि का आमापन होता है। धातुओं के आमापन की विधियों का संक्षिप्त वर्णन नीचे दिया जा रहा है।
=== ताँबे के आगणन (estimation) ===
ताँबे के आगणन की दो विधियाँ हैं, आयतनमितीय विधि और भारमितीय विधि।
;आयतनमितीय आगणन
इसमें तापन द्वारा मिश्रधातु या सिक्के के तुले हुए भाग को तनु नाइट्रिक अम्ल में विलीन किया जाता है। अभिक्रिया की समाप्ति और सिक्के के टुकड़े के पूर्णत: विलीन होने पर विलयन को वाष्म्पीकरण द्वारा लगभग सुखा लेते हैं। काँसे का सिक्का होन पर, उत्मुक्त टिन आँक्साइड को छानकर, जल से भली प्रकार धो लेते हैं और विलयन या छनित में इतना ऐमोनियम हाइड्रोक्साइड मिलाते हैं कि वह अल्प एमोनियामय हो जाय। इसके बाद इस विलयन में ठोस पोटासियम आयोडाइड, या उसका सांद्र विलयन मिलाते हैं, जिससे आयोडोन उन्मुक्त होता है। स्टार्च विलयन को सूचक (indicator) बनाकर उन्मुक्त आयोडीन के साथ मानक सोडियम थायोसल्फेट से [[अनुमापन]] (titration) करते हैं। इसी विधि से शुद्ध विद्युद्विश्लेषित ताँबे के प्रति आंमापन करके सोडियम थायोसल्फेट का मानकीकरण करते हैं।
;भारमितीय आगणन
इसमें सिक्के या मिश्रधातु के तुले हुए परिमाण को तनु सल्फूरिक और नाइट्रिक अम्ल के मिश्रण में विलीन करते हैं। यदि आवश्यक हो तो मिश्रधातु के पूर्णत: विलीन होने पर विलयन को छान लेते है और उसका तनूकरण करके, उसके अंदर तुला हुआ प्लैटिनम गाँज़ ओर प्लैटिनम तार रखकर, बैटरी के ऋण तथा धन ध्रुवों से जोड़कर विलयन का
=== टिन का आगणन ===
इसमें मिश्रधातु या सिक्के के तुले हुए परिमाण को तनु नाइट्रिक अम्ल में, आवश्यक हुआ तो तापन द्वारा, विलीन करते हैं। मिश्रधातु के पूर्णतया विलीन होने पर विलयन को गरम धातु पट्ट पर रखकर, कुछ सांद्र करके एवं पुन- तनु करके, फिर से उसे गरम धातु पट्ट पर रख देते हैं, ताकि उत्मुक्त टिन आँक्साइड नीचे बैठ जाए। टिन ऑक्सइड में फिल्टरपत्र की थोड़ी सी लुगदी मिलाकर छानते हैं और छनित को ताँबे से मुक्त होने तक एक प्रतिशत नाइट्रिक अम्ल से अच्छी तरह घोते हैं। अवक्षेप को सुखाने के बाद, [[पोर्सिलिन|पोर्सिलेन]] की तुली हुई मूषा (crucible) में प्रज्वलित करके ठंढा कर तौलते हैं। इस प्र्रकार प्राप्त टिन ऑक्सइड के भार से सिक्के या मिश्रधातु में टिन का प्रतिशत मालूम हो जाता है।
=== निकल का आगणन ===
यदि सिक्के या मिश्रधातु में ताँबा और टिन हो, तो उसे अलग करने के बाद अवशिष्ट विलयन में उपस्थित निकल का भारमितीय आगणन मिम्नलिखित प्रकार से किया जाता हैं।
(क) डाइ-मेथिल ग्लाइ ऑक्सिम लवण के रूप में, सिक्के या मिश्रधातु को उपयुक्त रीति से अम्ल में विलीन किया जाता है। विलयन की उचित मात्रा को तनु करके तनु ऐमोनियम हाइड्रॉक्साइड के मिश्रण से हल्का क्षारीय बनाते हैं। विलयन को गरम करते हैं और गरम विलयन में डाइ-मेथिल-ग्लाइ-ऑक्सिम का ऐलकोहली विलयन अधिकता के साथ मिलाते हैं, जिससे निकल लाल यौगिक के रूप में अवक्षिप्त हो जाता है। इसके बाद विलयन को ऐमोनियम हाइड्रॉक्साइड द्वारा स्पष्ट क्षारीय बनाकर, गरम धातुपट्ट पर जमने के लिये रख छोड़ते हैं। इसके बाद लाल योगिक को तौली हुई छिद्रित मूषा में छानकर और धोकर, भार के स्थिर होने तक 1200-1250
(ख)
=== जस्ते का आगणन ===
मिश्रधातु या सिक्के से ताँबा, निकल आदि अन्य धातुओं को अलग करने के बाद उसे जस्ते के लिए आमापित करते हैं। अन्य धातुओं को अलग करने के बाद विलयन की आवश्यक मात्रा को उदासीन करके उसमें इतना सल्फयूरिक अम्ल मिलाते हैं कि विलयन की अंतिम अम्लीय सांद्रता 0.1 नार्मल हो जाय। विलयन में [[हाइड्रोजन सल्फाइड]] गैस की तीव्र धारा प्रवाहित करते हैं, जिससे जिंक सल्फाइड अवक्षिप्त हो जाता है। अवक्षेपण पूरा होने पर विलयन को थोड़ी देर के लिए रख छोड़ते हैं और फिर उसे छानकर अवक्षेप को पानी से अच्छी तरह धोते हैं। अवक्षेप को सुखाने के बाद तुली हुई पोर्सिलेन मूषा में सावधानी के साथ जलाते हैं, जिससे सल्फाइड ऑक्साइड में बदल जाता है। प्राप्त जिंक ऑक्सइड के भार से मिश्रधातु, या सिक्के, में जस्ते के प्रतिशत की गणना कर लेते हैं।
=== चाँदी का आगणन ===
यद्यपि अब भारतीय सिक्कों में चाँदी का प्रयोग पूर्णत: समाप्त हो गया है और सन् 1946 के पूर्व जिन सिक्कों में मुख्य धातु चाँदी होती थी उनमें चाँदी का स्थान शुद्ध निकल ने ले लिया है, फिर भी भारतीय टकसालों में प्रयुक्त चाँदी के आमापन की विधि का उल्लेख कर देना आवश्यक है।
1851 ई0 में कलकत्ते की टकसाल में चाँदी के आमापन की भारतीय विधि का आविष्कार हुआ। सिक्कों और धातु मुद्राओं में चाँदी का आमापन करने के लिये शताधिक वर्षों तक इस विधि का प्रयोग हुआ। अन्य सभी देशों की टकसालें चाँदी के आमापन के लिये एक मात्र एक मात्र गे-लूसाक (Gay-lussac) की विधि का प्रयोग करती है, जबकि भारत में देशी विधि का प्रयोग होता था और इस दावे के साथ कि भारतीय विधि गे-लूसाक विधि से अधिक न सही, उसके बराबर परिशुद्ध परिणाम अवश्य देती है। इस विधि का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है :
धातुमुद्रा या सिक्के की निश्चित मात्रा लेकर उसके चाँदी को रजत क्लोराइड के रूप में अवक्षिप्त कर लिया जाता है। रजत क्लोराइड के भार से सिक्के या धातुमुद्रा की शुद्धता सीधे ही ज्ञात हो जाती है। आमापन के लिये धातुमुद्रा का परिमाण 18.821 ग्रेन निश्चित है
== बाहरी कड़ियाँ ==
* [https://web.archive.org/web/20090416191236/http://www.wildwinds.com/coins/ric/quietus/i.html Coins of Quietus]
* [https://web.archive.org/web/20100205180245/http://www.coins.nd.edu/ColCoin/ColCoinIntros/Morris.intro.html Robert Morris]
* [https://web.archive.org/web/20071007150505/http://www.archaeologystudent.com/coinarch/ Ancient Minting Process]
[[श्रेणी:अर्थशास्त्र]]
[[श्रेणी:उद्योग]]
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